“भाभी! प्रणाम।”
भाभी ने उत्साहहीन मुस्कान के साथ अपने देवर का प्रणाम स्वीकार किया और प्रश्नवाचक दृष्टि से जैसे पूछा हो कि इतनी सुबह-सुबह किस कारण पधारे हैं देवभाग-तनय। सामान्य नारी से कहीं अधिक हृष्ट-पुष्ट काया की स्वामिनी रेवती की इस दुखदायी भंगिमा को देख उद्धव को आंतरिक कष्ट सा हुआ, बोले, “भैया उठ गए क्या?”
“तुम्हारे भैया कब सोते हैं और कब उठकर पुनः सो जाते हैं, इसका ध्यान रखने की शक्ति अब मुझमें नहीं है उद्धव। वे तो जैसे भूल ही बैठे हैं कि उनकी एक पत्नी भी है जो उनसे प्रेम करती है, माताएं हैं जिन्हें उनकी आवश्यकता है। अभी उनके खर्राटे नहीं सुनाई दे रहे, कदाचित उठ ही गए हों। तुम स्वयं ही शयनकक्ष में जाकर देख लो।”
“पत्नी अथवा माताओं को ही नहीं भाभी, द्वारिका की जनता को एवं एक दुखियारी को भी उनकी आवश्यकता है।” यह बोल उद्धव बलराम के शयनकक्ष में प्रवेश कर गए। जिसे आमजन शेषनाग का अवतार मानता था, वह वासुदेव अपने पलंग पर अधलेटा सा बैठा हुआ चषक से मैरेय का पान कर रहा था। आहट सुनकर अधखुली आँखों से आगन्तुक को देख भारी वाणी में बोला, “आओ आओ भैया! मेरे निकट बैठो। तुम तो मुझे भूल ही गए हो। दिखते ही नहीं। आओ, बैठो। यह चषक उठा लो और इस यवनी मैरेय का स्वाद चखो। अद्भुत स्वाद है इसका।”
तिरस्कार से वह उन्हें कुछ क्षण देखते ही रह गए और जब बोले तो उनकी वाणी का तीखापन बलराम के मन को चीरता चला गया, “नहीं दाऊ। मुझे मैरेय अथवा मदिरा नहीं पीनी। मैं मात्र यह कहने आया था कि माता देवकी ने आपको बुलाया है। वे स्वयं यहाँ आ रही थी। परन्तु मैं नहीं चाहता था कि एक पुत्र के मृत्यु के शोक में निमग्न स्त्री को उसके दूसरे पुत्र की इस जीवित-मृत्यु के दर्शन हों।”
देवकी का नाम सुनते ही बलराम हड़बड़ाकर उठ गए और कुछ ही क्षणों में स्नान इत्यादि से निपट कर कृष्ण मंदिर के द्वार पर आ खड़े हुए। कृष्ण-मंदिर, माता देवकी के महल के साथ बना हुआ एक छोटा सा कक्ष, जहाँ उनके छोटे भाई के बाल रूप को झूले पर रखा गया था। यह वही बालरूप था जिसे अपने बन्दीजीवन में माता ने अपने हाथों से बनाया था और कारागार से मुक्त होने तक उसी में अपने कृष्ण को देखती, दुलार करती रही थी। द्वारिकावासियों का विश्वास था कि उनका कृष्ण कालयवन से अकेले युद्ध करते हुए मारा गया था, अन्यथा कोई कारण नहीं था कि अपने मथुरावासियों को द्वारिका में स्थापित करने और स्वयं कालयवन से अकेले ही भिड़ने के एक वर्ष पश्चात भी वह अपने माता-पिता और भाइयों के पास वापस लौट न पाया था।
बलराम ने अपने ही छोटे भाई के बाल-गोपाल रूप वाले कक्ष में प्रवेश करने से पहले अपनी पादुकाएं बाहर द्वार पर ही उतार दी। माता का कृष्ण के प्रति प्रेम अब भक्ति का रूप ले चुका था, अतः भले ही कृष्ण उनका छोटा भाई हो, देवकी की भक्ति किसी भी मानवीय नाते से कहीं अधिक बड़ी थी।
चरणों पर शीश के स्पर्श से माता की तन्द्रा भंग हुई और उन्होंने चुपचाप एक पत्र बलराम के सम्मुख रख दिया। पत्र माता को सम्बोधित था और उसमें लिखा था कि वह एक स्त्री है जिसने जन्मजन्मांतर के लिए कृष्ण को अपना पति मान लिया है। अब उसके परिजन उसका विवाह करवाने के लिए स्वयंवर का आयोजन कर रहे हैं। लिखा था कि भले ही उसका विवाह वैदिक मंत्रोच्चार के साथ देवकीनन्दन से न हुआ हो, पर महादेव के चरणों की सौगंध लेकर वह वर्षों पहले केशव की हो चुकी है। वह कभी रही होगी भीष्मक की बेटी, अब वह वसुदेव की बहू है। निवेदन किया था कि वह धर्मत: कृष्ण की थी और कृष्ण की मृत्यु के पश्चात भी कृष्ण की ही बनी रहना चाहती है। वह अपने द्वार पर द्वारिका की सेना को देखने की अभिलाषी थी जो विदर्भ के कारागार रूपी महलों से अपनी बहू को मुक्त कराने के लिए आई हो।
बलराम ने पत्र पढ़ा और वे उलझ से गए। बिना विवाह के बहू? “माता, आपका क्या आदेश है?”
देवकी ने प्रश्न का उत्तर नहीं दिया और बालगोपाल को झुलाती रहीं। बलराम पुनः बोले, “यह विचित्र बात है माता। विदर्भ की राजकुमारी स्वयं को द्वारिका की बहू कह रही है, परन्तु उसका विवाह तो कृष्ण से हुआ ही नहीं है। इस प्रेम के सम्बंध में न कभी कृष्ण ने ही कुछ कहा। वृंदावन की राधा यह कहती तो समझ में आता भी।”
“तो क्या तुम रुक्मिणी को लेने नहीं जाओगे?”
“यह व्यवहारिक नहीं है माता। शरीर का सामर्थ्य तभी तक है जब तक उसमें आत्मा हो। आत्मा के निकल जाने पर कितना भी बलवान शरीर हो, उसकी उपयोगिता शून्य है। द्वारिका की सेना कितनी ही विशाल क्यों न हो गई हो, महारथियों से परिपूर्ण हो, पर उसकी आत्मा, अपने कृष्ण के बिना वह निर्बलों का झुंड भर है। कृष्ण ने अपना बलिदान दे दिया, ताकि हम यहाँ अपनी मातृभूमि से इतनी दूर जरासंध और उसकी कुटिल चालों से सदैव के लिए मुक्त हो सकें।
आपको कदाचित ज्ञात नहीं कि यह भीष्मक भी जरासंध के गुट का राजा है, और जरासंध के कहने पर ही उसने हमारी बुआ के पुत्र शिशुपाल के साथ रुक्मिणी के विवाह का निश्चय किया है। यह स्वयंवर मात्र ढोंग है। कृष्ण जीवित होता, तब हम अवश्य इस स्वयंवर में जाते और रुक्मिणी को जीतकर लाते। परन्तु अनावश्यक ही युद्ध करने का कोई कारण समझ नहीं आता मुझे।”
“बेटा, यह सब राजनीति मुझे नहीं पता। इतना पता है कि एक दुखियारी ने कृष्ण के नाम पर सहायता मांगी है।”
“माता! रुक्मिणी अभी युवा है। पूरा जीवन पड़ा हुआ है उसके आगे। वह बिना विवाह के ही विधवा बनकर यहाँ द्वारिका में अपना जीवन बिता दे, यह उचित लगता है आपको? क्या इसे एक स्त्री के प्रति अत्याचार नहीं माना जाएगा?”
अब तक उनींदी सी देवकी एकाएक ही जागृत होकर बोली, “अत्याचार? उस बालिका का विवाह उसकी स्वीकृति के बिना किया जा रहा है, स्वयंवर का ढोंग किया जा रहा, वह किसी पुरुष को अपना पति मान चुकी है, इसके पश्चात भी उसे बलात किसी अन्य पुरुष को भेड़-बकरी की तरह सौंपने का आयोजन किया जा रहा है, वह अत्याचार नहीं है? वह युवा है, सारा जीवन पड़ा है, पर वह उसका जीवन है। यदि वह विधवा बनकर रहना चाहती है तो क्या उसके पिता को अनुमति है कि तत्काल ही उसका विवाह कर दिया जाए? अरे, प्रतीक्षा कर लो। जब उसका मन बदल जाए तब किसी सुयोग्य को देख या स्वयंवर के द्वारा विवाह करवा दो। राम! रुक्मिणी को मैं द्वारिका की बहू स्वीकार करती हूँ। वह यहीं मेरे पास रहेगी, मेरी बेटी बनकर। भविष्य में कभी वह चाहेगी तो जैसे बेटियों का विवाह होता है, उसका भी विवाह मैं करवाउंगी। तुम तो मुझे मात्र इतना बताओ कि क्या तुम रुक्मिणी को यहाँ द्वारिका ला पाओगे? यदि हाँ, तो अभी इसी क्षण सेना को सज्ज करो और विदर्भ जाओ, और यदि नहीं तो अपने कक्ष में जाकर सो रहो। मैं किसी अन्य यादव वीर के सम्मुख अपना आँचल फैलाऊंगी। कोई तो होगा जो इस माता के वीरपुत्र की वीर-पुत्रवधू को ससम्मान द्वारिका ला पाएगा।”
बलराम को झटका सा लगा। माता की इच्छा ही आदेश होती है, और वह अब तक तर्क-वितर्क कर रहे थे? बलराम ने माता के चरणों में शीश नवाया। बाहर निकल कर अनुचरों को आदेश दिया और कुएं पर खड़े होकर घड़ों पानी से नहाने के पश्चात आसपास देखा तो उद्धव को खड़ा पाया। उनके हाथों में स्वयं का धनुष और बलराम का हल था।
विदर्भ की सीमा पर यादव सेना खड़ी थी। दूत को सन्देश के साथ विदर्भराज भीष्मक के पास भेज दिया गया था कि यादव अपनी बहू को लेने आए हैं। प्रतिउत्तर में विदर्भ की सेना भी राजकुमार रुक्मी के नेतृत्व में यादवों के सम्मुख डट गई थी। बलराम ने अपनी सेना को देखा। यादव कुलों में आपसी मतभेद थे, पर आज उनकी सेना में उद्धव, कृतवर्मा, सात्यकि, अक्रूर सहित सभी कुलों के नायक अपनी-अपनी सेनाओं के साथ अपने कृष्ण की विधवा को लेने एकजुट आन खड़े थे।
शँख की ध्वनि के साथ ही युद्ध आरम्भ हो जाने वाला था, विलंब करने का कोई कारण न था, अतः वासुदेव बलराम ने वीरभाव से अपना शँख निकाला। वो अपने शँख को फूँकने ही वाले थे कि यादव सेना के पीछे से पाञ्चजन्य शँख का तीव्र अनुनाद सुनाई दिया। पाञ्चजन्य! कृष्ण का शँख! यादव सेना ने पीछे मुड़कर देखा तो रथ पर, माथे पर मोरपंख और कंधे पर सुदर्शन चक्र से सुशोभित श्यामल काया को शँख फूँकता हुआ पाया। उस श्याम के एक बाजू में एक सधवा नारी लिपटी हुई थी और वह यादव सेना को देख मुस्कुरा दिया।
उसने रथ मोड़ा और लौट चला। उसके पीछे यादव सेना भी हर्षचीत्कार करते हुए लौट गई।
Credit: Ajeet Pratap Singh