Sneha Aur Sandeep:
संदीप अपने छोटे से किराये के कमरे में बेचैन घूम रहा था। जुलाई की तपती गर्मी और पसीने से तरबतर उसकी शर्ट उसके शरीर से चिपक चुकी थी। उसके मन में कई सवाल और अनिश्चितता की एक लहर थी—क्या वह इस बार भी नाकाम रहेगा?
पिछले दो सालों से वह प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दे रहा था, लेकिन हर बार असफलता हाथ लगती थी। आज परिणाम का दिन था, लेकिन संदीप की इतनी हिम्मत नहीं हो रही थी कि साइबर कैफे जाकर अपना परिणाम देख सके। उसका फोन भी पुराने मॉडल का था, जिसमें इंटरनेट का कोई सवाल ही नहीं था।
उसकी जिंदगी में स्नेहा नाम की एक लड़की थी, जो उसे बहुत पसंद थी और जो उसके मकान मालिक की बेटी थी। स्नेहा ने उसे वादा किया था कि जब उसके पिताजी के पास अखबार आएगा, वह उसे संदीप का परिणाम दिखाने के लिए ले आएगी।
दोपहर के बारह बज चुके थे, लेकिन अभी तक स्नेहा का कहीं अता-पता नहीं था।संदीप और स्नेहा पिछले कुछ सालों से एक-दूसरे को पसंद करते थे। स्नेहा उसे हमेशा उसके लक्ष्यों को पाने के लिए प्रेरित करती रहती थी। चाहें उसे पढ़ाई के लिए केरोसीन देना हो, खाना खिलाना हो, या अपनी छोटी-सी बालियां बेचकर उसकी किताबें खरीदवाना—स्नेहा हर तरह से उसका साथ देती।
संदीप भी उसके इस व्यवहार से प्रभावित था और उसके प्रति गहरी भावनाएं रखता था।अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई। संदीप ने उत्सुकता से दरवाजा खोला, तो सामने स्नेहा खड़ी थी।
पसीने और गर्मी के कारण उसका चेहरा लाल हो गया था। वह हांफती हुई संदीप के पास आई और उसे अखबार का एक टुकड़ा थमा दिया। संदीप ने देखा कि पीले मार्कर से उसका रोल नंबर सफल उम्मीदवारों में दर्ज था। उसे यकीन ही नहीं हुआ कि उसने आखिरकार सफलता हासिल कर ली है।
स्नेहा ने उसकी ओर मुस्कुराते हुए कहा, “अब तो मिठाई बनती है!”संदीप ने भावुक होकर उसका हाथ थामा और कहा, “तुम्हारे बिना शायद मैं ये मुकाम नहीं पा सकता था।” यह सुनकर स्नेहा ने उसका हाथ छुड़ाया और हल्के से मुस्कुराते हुए बाहर भाग गई।
संदीप की खुशी का ठिकाना नहीं था। उसे लगा जैसे उसकी मेहनत का फल मिल गया हो। लेकिन उसकी आर्थिक स्थिति अभी भी कमजोर थी। उसने कमरे के हर कोने में कुछ पैसे तलाशे और कुल 120 रुपये इकट्ठा कर पाए। वह सोचने लगा कि इतने पैसों में वह या तो घर जा सकता है या खाना खा सकता है।तभी फिर से दरवाजे पर दस्तक हुई।
इस बार स्नेहा के हाथों में एक थाली थी। उसने संदीप के सामने थाली रख दी, जिसमें तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन थे। यह देखकर संदीप की आंखों में आंसू आ गए। उसने भावुक होकर कहा, “स्नेहा, तुम्हारे एहसान का कर्ज मैं कभी नहीं चुका पाऊंगा।” स्नेहा ने उसे हल्का सा थपथपाया और कहा, “ये सब एहसान नहीं है, ये मेरा प्यार है।
“संदीप ने खाना खाया, और फिर अपना सामान लेकर घर के लिए निकल पड़ा। गांव पहुंचते ही वहां का माहौल पूरी तरह बदल गया था। गांववालों ने ढोल-नगाड़ों के साथ उसका स्वागत किया। संदीप की सफलता ने उसके पिता का सीना गर्व से चौड़ा कर दिया। कुछ दिनों के लिए संदीप गांव में ही रुका, और उसके पिता गांववालों से गर्व से कहते, “मेरा बेटा कलेक्टर है!”कुछ दिनों बाद, संदीप की ट्रेनिंग का बुलावा आ गया और वह ट्रेनिंग के लिए चला गया।
ट्रेनिंग के बाद उसकी पोस्टिंग भी हो गई, और पहली फुरसत में वह प्रयागराज वापस स्नेहा से मिलने के लिए निकल पड़ा।बाबूजी के घर पहुंचने पर संदीप का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसने काले चश्मे से अपनी आंखें ढक लीं ताकि खुशी के आंसू छिपा सके। बाबूजी उसे देखकर भावुक हो गए। संदीप ने स्नेहा के बारे में पूछा तो बाबूजी के चेहरे पर एक उदासी सी छा गई।
बाबूजी ने बताया कि स्नेहा शादी के दिन से एक दिन पहले भाग गई थी। वह अकसर एक अखबार के टुकड़े को सीने से लगाए रहती थी और कहती थी कि “वो आएगा और मुझे ले जाएगा।”संदीप का मन टूट गया। उसने बाबूजी से माफी मांगी और बाहर निकल गया।
उसने हर संभव कोशिश की स्नेहा को ढूंढने की, लेकिन वह कहीं नहीं मिली। कई सालों तक वह उसे ढूंढता रहा, लेकिन नाकामयाबी उसके हिस्से आई। धीरे-धीरे उसकी उम्मीदें टूटती गईं, और उसने स्नेहा की तलाश छोड़ दी।एक दिन, उसके बचपन के दोस्त अमर ने उसे अपने घर बिहार आने का निमंत्रण दिया, ताकि वह मन हल्का कर सके। संदीप उसकी बात मानकर वहां गया।
अमर की पत्नी चाय लेकर आई, और तभी रसोई से कुछ गिरने की आवाज आई। अमर की पत्नी ने चिल्लाकर कहा, “स्नेहा, संभाल के!”स्नेहा का नाम सुनते ही संदीप का दिल जोर से धड़कने लगा। उसने दौड़कर रसोई में देखा—वहां स्नेहा थी, अपने आंसू पोंछते हुए बर्तन साफ कर रही थी।
संदीप ने उसे पुकारा। स्नेहा ने नजरें उठाईं और फिर धीरे-धीरे उसके पास आई।दोनों की आंखों में आंसू थे, लेकिन इस बार ये आंसू खुशी के थे। दोनों ने एक-दूसरे को देखकर महसूस किया कि उनकी मोहब्बत ने वक्त की तमाम बाधाओं को पार कर लिया था।